राष्ट्रीय चेतना का आख्यान- पुष्प की अभिलाषा
‘पुष्प की अभिलाषा’ राष्ट्रीय काव्यधारा के
मूर्धन्य हस्ताक्षर ‘एक भारतीय आत्मा’ के नाम से विभूषित कवि माखनलाल चतुर्वेदी की
बहुचर्चित कविता है | राष्ट्रीयता की भावना को पुष्प के मनोभावों के माध्यम से जिस
आंतरिकता के साथ अभिव्यक्त किया गया है, वह स्तुत्य है | यह सर्वविदित है कि हम
वर्षों तक अपने ही देश में विदेशियों के गुलाम बने हुए थे | कवि ने स्वयं गुलामी
की पीड़ा को अनुभूत किया था | उन्होंने देश को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कराने
के लिए रचनात्मक दृष्टि से कविताओं की रचना की, वहीं स्वतंत्रता आन्दोलन में
सक्रिय भूमिका निभाई | लोकमान्य तिलक और गांधीजी से प्रभावित होकर वे देश की आजादी
की लड़ाई में कूद पड़े | जेल की यातनामयी जिंदगी को इन्होंने कई बार अनुभूत किया | देश
के प्रति वे तन-मन से समर्पित थे |
सन 1922 में विलासपुर जेल में लिखी गयी
कविता ‘पुष्प की अभिलाषा’ राष्ट्र के
प्रति उनके गहन प्रेम और समर्पण की कविता है | कवि को अपने देश पर गर्व है | इसलिए
वह उसपर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार है | वास्तव में पुष्प की अभिलाषा
कवि की अपनी अभिलाषा है | देशानुराग से आबद्ध पुष्प की कामना यह नहीं है कि कोई
उसे तोड़कर सुरबाला अर्थात् अप्सरा या देवकन्या के गहनों में गूंथकर उसके सौंदर्य
को कई गुणा बढ़ा दें | जब देश के वीर देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में सहर्ष अपने तन
को न्यौछावर कर रहे हो, ऐसे में भौतिक सौंदर्य का कोई मूल्य नहीं रह जाता है | पुष्प
की अभिलाषा को व्यक्त करते हुए कवि ने लिखा है –
“चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ |
चाह नहीं, प्रेमी-माला के बिंध प्यारी को ललचाऊँ ||”
पुष्प के लिए देश-प्रेम व्यक्तिगत-प्रेम से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है | जब देश
विदेशी दासता के बंधन में बंधा हो, तब व्यक्तिगत सुख और आनंद का कोई मोल नहीं रह
जाता | इसलिए पुष्प व्यक्तिगत स्वार्थ के संकुचित क्षेत्र से निकल देश के लिए अपने
व्यक्तिगत प्रेमभाव को तिरोहित कर देता है
|
पुष्प अपने मनोभावों को प्रकट करते हुए कहता है
कि वह सम्राटों के शव की शोभा बढ़ने का कारक नहीं बनना चाहता | उसकी तनिक भी इच्छा नहीं है कि उसे सम्राटों के शव
पर डालकर उसकी महत्ता को बढ़ाया जाए क्योंकि उसकी दृष्टि में देश की स्वतंत्रता में
शहीद हुए वीर, इन सम्राटों से अधिक पूजनीय है
| स्वतंत्रता-सेनानियों का बलिदान निस्वार्थ: भाव से भरा हुआ है |
पुष्प की यह कामना भी नहीं है कि उसे देवताओं
के सिर पर चढ़ाया जाए और वह इसे अपना सौभाग्य समझकर इठलाती रहें | पुष्प के लिए
अपना स्वतंत्र देश, अपनी स्वतंत्र भूमि सौभाग्य का सूचक है | उसके लिए उसकी
मातृभूमि ही देवस्थान है –
“चाह नहीं, सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला
जाऊँ |
चाह नहीं, देवों के सिर पर चढ़ूँ, भाग्य पर इठलाऊँ ||”
माखनलाल चतुर्वेदी की देशोत्सर्ग की भावना
कितनी गहरी है, इसे अंतिम चार पंक्तियों के माध्यम से समझा जा सकता है | पुष्प अपनी
अभिलाषा प्रकट करते हुई कहता है कि हे वनमाली मुझे तोड़कर उस पथ पर फेंक देना जिस
पथ से देश-प्रेमी वीर स्वतंत्रता की लड़ाई में अपनी मातृभूमि के लिए अपने सिर कटने
अर्थात् मरने तक की परवाह नहीं करते -
“मुझे तोड़ लेना वनमाली |
उस पथ में देना तुम फेंक ||
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने |
जिस पथ जावें वीर अनेक ||”
यह कविता देश-प्रेम की अनूठी कविता है | इस कविता में गौर करनेवाली बात यह है कि प्रत्यक्षत: यहाँ
कोई मनुष्य अपनी अभिलाषा प्रकट नहीं कर रहा है, एक पुष्प अपनी अभिलाषा प्रकट कर
रहा है और कैसी अभिलाषा, देश के लिए पूर्ण समर्पण की अभिलाषा | पुष्प जिसे आमतौर
पर सजावट के लिए, देवों के उपासना के लिए या सौंदर्यवर्धन कारक के तौर पर उपयोग
किया जाता है, उसकी अभिलाषा देशोत्सर्ग की है | यह छोटी-सी कविता पुष्प के
मनोभावों को नहीं बल्कि समाज के उस वर्ग की अभिलाषा को उद्घाटित करता है, जिसका
सीधा संबंध स्वाधीनता आन्दोलन से नहीं है | वह वर्ग जो प्रत्यक्षत: स्वाधीनता की
लड़ाई नहीं लड़ सकता है पर इससे स्वाधीनता की लड़ाई में उसकी भूमिका नगण्य नहीं हो
जाती है | यह कविता उस समय लिखी गयी जब प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक व्यक्ति को
आजादी की लड़ाई के लिए सजग होने की जरूरत थी | देश सबका है, आजादी सबकी है और इसे
पाने में सबकी भूमिका होनी चाहिए | यह कविता उसी मानसिकता को जगाने की कविता है |
यह कविता सिर्फ देश प्रेम की कविता नहीं है, देश के प्रति प्रत्येक व्यक्ति के
कर्तव्य-भावना और चेतनता की कविता है |
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