बुधवार, 19 फ़रवरी 2025

स्त्री विमर्श और समकालीन हिंदी कविता - डॉ. शशि शर्मा

 

अपने वजूद के लिए संघर्षरत स्त्रियाँ और समकालीन कविता

             

एक समय था जब स्त्री घर की चार दिवारी में कैद दीवारों की तरह मौन रहा करती थी पर समय-परिवर्तन के साथ घर की चारदीवारी लांघकर, वह पुरूष के कदम से कदम मिलाकर चलने लगी | सदियों से चली आ रही पुरूषतांत्रिक व्यवस्था में स्त्री का पुरूष के कदम से कदम मिलाकर चलना एक क्रांतिकारी कदम अवश्य था पर इसे अगर पुरूषवादी मानसिकता का पतन समझा जाए तो शत-प्रतिशत सही नहीं होगा | यह सच है कि स्त्री आज अपने पारम्परिक रूप से मुक्त हुई है पर क्या वह पुरूषवादी मानसिकता से मुक्त हो पाई है ?अखबारों के पन्ने और न्यूज चैनलों पर आए दिन स्त्री-उत्पीड़न की जो तस्वीरें देखने को मिलती हैं, उससे तो यही प्रतीत होता है कि शिक्षित हो या अशिक्षित, नौकरीपेशा हो या घरेलू, आधुनिक हो या ग्रामीण - स्त्री आज भी पुरूषवर्चस्ववादी मानसिकता के कारण पीड़ित और अवहेलित है | उसकी अस्मिता, उसका वजूद हमेशा से खतरे में हैं |

आज की स्त्री कई भूमिकाओं को एक साथ निभा रही हैं | घर, परिवार, कैरियर सबमें सामंजस्य बैठा रही है, बावजूद इसके उसकी महत्ता को अंडरएस्टीमेटकिया जाता है | उसकी प्रतिभा, उसके विलक्षण सोच, उसके कृतित्व को खुले दिल से सराहने के बजाए उसे मानसिक और दैहिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है | स्त्री भी मनुष्य है, उसकी भी एक अलग सत्ता है, उसका भी अपना वजूद है, इस सोच से हमारा समाज आज भी कोसों दूर हैं | ‘स्त्री चिंतन की चुनौतियाँ’ नामक पुस्तक में रेखा कस्तवार लिखती है -“ आज भी मनुष्यकी अवधारणा में स्त्री और पुरूष दोनों को शामिल नहीं किया जाता | सचेत रूप में स्त्री को इससे अलगाने की कोशिशें ख़त्म नहीं हुई हैं|1

स्त्री-जीवन के इस त्रासद पहलू को कई कवियों ने शब्दबद्ध किया | जिनमें स्त्री और पुरूष दोनों ही है | जहाँ स्त्री रचनाकारों का यह स्वानुभूत सत्य रहा, वहीं पुरूषवादी मानसिकता से मुक्त कई पुरूष रचनाकारों ने स्त्री की इस व्यथा को महसूस करते  हुए उस पीड़ा को कलमबद्ध किया |

समाज स्त्री की सार्थकता घर-परिवार की गुलामी में समझता है | उसकी शिक्षा,उसकी आकांक्षा, उसकी इच्छा का कोई महत्व नहीं | उसके दायरे को कर्तव्य के नाम पर सीमाबद्ध करने की चेष्टा समकालीन कवि रघुवीर सहाय की बहुचर्चित कवितापढ़िए गीतामें देखी जा सकती है –“      पढ़िए गीता/ बनिए सीता/ फिर इन सबमें लगा पलीता / किसी मूर्ख की हो परिणीता /निज घर बार बसाइये |/ होंय कँटीली /आँखें गीली /लकड़ी सीली,तबियत ढीली /घर की सबसे बड़ी पतीली/ भरकर भात पसाइये |”2

यह छोटी-सी कविता स्त्री-जीवन के आरम्भ और अंत को विस्तार से व्यंजित करती है | एक स्त्री की पहचान उसके पति, बच्चे, सगे-संबंधी और घरेलू आपाधापी से हैं | इससे इतर भी उसका वजूद है, यह स्वीकारोक्ति अभी भी सीमित है |

अपने वजूद के लिए लड़ती स्त्री का संघर्ष असीम है | जीवन में स्त्री की अनिवार्यता को समझने के बावजूद पुरूष उसकी महत्ता को स्वीकार नहीं करना चाहता है | एक पत्नी और माँ के रूप में स्त्री पुरूष के जीवन को परिपूर्ण करती है, बावजूद इसके उसे हमेशा हाशिये पर रखा जाता है | समकालीन कवयित्री जया जादवानी इस पहलू पर लिखती है –“ जैसे हाशिये पर लिख देते हैं /बहुत फालतू शब्द और /कभी नहीं पढ़ते उन्हें/ ऐसे ही वह लिखी गयी और / पढ़ी नहीं गयी कभी / जबकि उसी से शुरू हुई थी / पूरी एक किताब |”3

औरतेंशीर्षक कविता में स्त्री को परिभाषित करती हुई चित्रा सिंह लिखती है – “ जिन्दगी के/चाक पर घूमती/गढ़ती हैं /रोज नए आकार /चक्की पर पिसती /चुन जैसी बारीक.../ चूल्हे की आँच में सिकती दोनों पहर/ आख़िरी बूँद सी पसीने की / ढुल जाया करती यूं ही जमीन पर / कई-कई बार धुली हुई /सफ़ेद चादर सी / बिछ जाया करती हैं / बिस्तर पर |4

स्त्री दैहिक और मानसिक सुख की कारक होती है | सुबह से रात तक वह अलग-अलग भूमिकाओं को निभाती हुई परिवारवालों को खुशियाँ देती है पर बदले में मिलती है तो केवल उपेक्षा और नयी-नयी जिम्मेदारियाँ |

 

आलोचक ए.अरविंदाक्षन लिखते हैं स्त्री अपने पारिवारिक दायित्वों से मुक्त नहीं होती है | यही से उसकी अस्वतन्त्रता का आरम्भ होता है | इसे पोषित करनेवाले कई घटक समाजवादी कहे जानेवाले समाजों में भी मिलते हैं | इस कारण परिवार, शैक्षिक संस्थाएँ और संचार माध्यम आदि स्त्री संबंधी अपनी पारंपरिक मान्यता को ही बढ़ावा देते रहते हैं | तमाम प्रकार की प्रगतिशील दृष्टियों के बावजूद ये स्त्री को परोक्षत: कटघरे में पाना चाहते हैं जिसे तोड़ना आसान नहीं |”5

स्त्री का निजत्व खतरे में हैं | वह बेटी है,बहन है, पत्नी है, बहू है, माँ है पर स्त्री नहीं है | उसका अपना स्पेसनहीं है | उसकी अपनी इच्छा-आकांक्षा और जरूरतें नहीं है | यहाँ तक की उसका घर भी उसका नहीं होता | जिस घर में वह पलती-बढ़ती है और जिस घर में वह विवाह पश्चात जाती है, कहीं भी वह अपना ‘स्पेस’ नहीं पाती है | घर उसके लिए महज एक कर्तव्य गृह है, जहाँ उसे केवल दूसरों का ख्याल रखना है | ज्योत्सना लिखती है – “वह उसका घर है /जहाँ वह बर्तनों के साथ बजती है /चूल्हे के साथ जलती /गीली स्मृतियों के साथ धुँआती आती है |”6

घरेलू स्त्रियाँ ही नहीं नौकरीपेशा उच्च शिक्षित स्त्रियाँ जो अपना वजूद गढ़ने की ओर अग्रसर होती है, उन्हें भी बार-बार पुरूष प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है | उनके पहनावे को पुरूष की भोगलोलुप मनोवृति का कारण ठहराया जाता है पर विचारणीय यह है कि क्या सिर्फ आधुनिक पहनावे वाली नौकरी पेशा स्त्रियाँ ही पुरूषों की मानसिक और दैहिक यौन-हिंसा का शिकार होती है ? नहीं | सच्चाई यह है कि स्त्रियाँ पहनावे की वजह से नहीं बल्कि पुरूष की ओछी मानसिकता के कारण हिंसा की शिकार होती है | पुरूष के लिए स्त्री सिर्फ उपभोग की वस्तु है | वह सिर्फ उसे भोगना चाहता है, दैहिक नहीं तो मानसिक तरीके से ही सही | समकालीन कवि पवन करण की कविता टायपिस्टइस सन्दर्भ में अवलोकनीय है हमसे कोई ऐसा नहीं /जो उसकी और अपने साथियों की/ नजर बचा-बचाकर/ उसके संतुलित अंगों की उत्तेजना को / अपने अंगों में /करता न रहता हो हरदम/ महसूस /उसे इस बात का कतई पता नहीं /हम उसके साथ कितनी ही बार/कल्पनाओं और सपनों के/चिर-युवा बिस्तर पर कर चुके हैं सहवास’’7 सुधीश पचौरी स्त्री देह के विमर्श में पुरूषों की इस भोगवादी मानसिकता पर लिखते हैं – “दफ्तरों, कार्यालयों में स्त्री सहभागिता ज्यों-ज्यों बढ़ रही है, स्त्री के प्रति उत्पीड़न भी उसी अनुपात में बढ़ रहा है | मर्दवादी लोगों ने छेड़ने के अपने शास्त्र के नए-नए संस्करण गढ़े हैं |8

समय परिवर्तित हो गया है परन्तु स्त्री के प्रति पुरूष की सामंती दृष्टि आज भी व्याप्त है | वह घर से बाहर तो निकल चुकी है किन्तु अस्तित्व गढ़ने के क्रम में पग-पग पर उसे विरोध के सम्मुखीन होना पड़ता है | पुरूषतांत्रिक व्यवस्था हर कदम पर उसे रोकने को तत्पर रहता है | समकालीन कवियित्री मनीषा झा लिखती है – “ मैं उड़ान भरने की रौ में थी / कि काट लिए गए मेरे पंख / मैं कुछ कहने को उठी थी /कि पड़ने लगी गालियों की बौछारें/ उन बौछारों के बीच / दब गई मेरी आवाज 9

अपने वजूद की लड़ाई लड़ती औरतों के लिए हर कदम पर रूकावट है | वह सिर्फ भोग की वस्तु है,प्रेम की वस्तु की नहीं | उससे प्रेम किया जाता है, उसके मन को संतुष्ट करने के लिए नहीं बल्कि अपनी  भोगलोलुपता को तुष्ट करने के लिए | स्त्री जब तक उसे देह सौंपती रहती है, प्रेम बना रहता है पर जैसे ही वह देह के दायरे से मुक्त होना चाहती है, उसे बदनाम किया जाता है उसके ही प्रेमी द्वारा | आज प्रेम को सरेआम नंगा किया जा रहा है तकनीकी माध्यमों द्वारा | उदय प्रकाश की कविता औरतेंप्रेम सन्दर्भ में स्त्री की त्रासदी के विभिन्न पक्षों को सूक्ष्मता से अनावृत्त करती है –“ एक औरत का चेहरा संगमरमर जैसा सफ़ेद है/...एक सीलिंग की कड़ी में बाँध रही है अपना दुपट्टा /उसके प्रेमी ने सार्वजनिक कर दिए हैं उसके फोटो और पत्र”10

स्त्री-शोषण के एक नए पक्ष को अंजना वर्मा की एक साजिश हो रही हैशीर्षक कविता में देखा जा सकता है | अड़तीस वर्ष की होनेवाली अंजना की आकांक्षा माता-पिता की स्वार्थवृत्ति के आगे लुटती रहती है | बहुराष्ट्रीय कंपनी की तमाम सुखसुविधाओं से लैस अंजना माता-पिता का बेटा बनकर ही रह जाती है | माता-पिता उसे बेटा संबोधित ही नहीं करते बल्कि उसकी स्वाभाविक जरूरतों और इच्छाओं की अनदेखी कर उसे बेटा ही समझने लगते हैं | स्त्री की अपनी जरूरतें होती हैं | इस जरूरत को शिद्दत से महसूस करती अंजना का सब्र उम्र के अड़तीसवें पायदान पर टूट जाता है - उसे शिद्दत से महसूस होता है /कि वर्षों से शापा जाता रहा है उसे /.....‘अखबार के पन्नों में वैवाहिक देखते ही / वह चीखना चाहती है अरे ! किसी को याद भी है में बेटी हूँ?11

जन्मदाता के स्वार्थी, असंवेदनशील रवैये का यह दृश्य वर्त्तमान समय का एक भयावह यथार्थ  है | यह कटु सच्चाई है कि वर्त्तमान समय में माता-पिता अपने सुख के लिए अच्छे पद पर विराजमान बेटी की स्वाभाविक जरूरतों को जानबूझकर अनदेखा ही नहीं कर रहे , उसे जबरन बेटा बने रहने के लिए मजबूर भी कर रहे  हैं |

स्त्री-सुरक्षा आज एक गंभीर प्रश्न बन गया  है | निजी संबंधियों द्वारा लड़कियों को बेचने, उनका यौन शोषण करने की घटना में निरंतर इजाफा हो रहा है | जवान होती लड़की को अपने घर के पुरूषों से चाहे वह उनका जैविक पिता ही क्यों न हो सुरक्षित रख पाना अत्यंत कठिन होता जा रहा है खासकर तब  जब वह आर्थिक रूप से विपन्न हो | आज स्त्री पुरूष के लिए विपन्नता दूर करने का जरिया बन रही है | भगवत रावत की भरोसाकविता स्त्री-शोषण के इस त्रासद पहलू पर आलोकपात करती है –“ वह बरतन वाली बाई /....उसके मैले से झोले में /उसकी लड़की की /बहुत पुरानी फोटो है / जब वह लड़की थी/तेरह की या चौदह की /वह कहती है / छह-सात साल पहले/उसके /अपने पापी घरवाले ने /अपने ही गुंडे भाई ने / मिलकर/ उसकी लड़की को बेच दिया”12

देहप्रेमियों द्वारा प्रेम के नाम पर तेज़ाब फेंकने, यौन-शोषण करने की घटना जिस तीव्रता से बढ़ रही उससे प्रत्येक सुन्दर बेटी का पिता भयभीत है | समकालीन कवि पवन करण अपनी कविता एक ख़ूबसूरत बेटी का पिता में जिस सूक्ष्मता और गंभीरता के साथ एक पिता की मानसिक स्थिति का चित्रण करते हैं, वह समाज और व्यक्ति की निकृष्टता का बोध कराती है | पंद्रह साल की कच्ची उम्र में सच्चा प्रेम के नाम पर देह को समर्पण करने या करवाने की चिंता हर पिता की चिंता बन जाती है | इस उम्र में प्रेमावेग में गलत रास्ते पर चल पड़ना स्वाभाविक है और इसी स्वभाविकता के कारण कवि को अपनी 15 साल की बेटी की सुन्दरता चुभती है प्रेम की तीव्रता एकांत चाहती है और वह / प्रेमाभिव्यक्ति से देहाभिव्यक्ति की ओर बढ़ती है / और प्रेम में यह बढ़ना हो ही जाता है / मैं नहीं कहता कि देह अपवित्र चीज है/ लेकिन वह पवित्र भी नहीं उतनी /कि हर समय उसकी चिंता में घुलते रहा जाए’’13 

अपने वजूद को कायम रखने की जद्दोजहद से पीड़ित स्त्री का चित्र अरूण कमल की स्वप्न कविता में देखा जा सकता है खूँटे से बंधी बछिया-सी जहाँ तक रस्सी जाती, भागती /गर्दन ऐंठने तक खूँटे को डिगाती /वह बार बार भागती रही /बार बार हर रात एक ही सपना देखती/ ताकि भूल न जाए मुक्ति का स्वप्न / बदले न भी जीविन तो जीवित बचे बदलने का यत्न |14

स्त्री के इसी प्रयास के फलस्वरूप आज थोड़ा-बहुत परिवर्तन आया है | प्रत्येक क्षेत्र में उसकी उपस्थिति देखने को मिल रही है | शिक्षा, साहित्य, कला, वाणिज्य से लेकर सेना, चिकित्सा,खेल आदि सभी जगहों पर वह देश और परिवार का मान बढ़ा रही है पर विडंबना यह है कि उन्हें आज भी उन्हें वह  अपेक्षित सम्मान नहीं मिल रहा जिसकी वह अधिकारणी है | आज भी उन्हें समाज और परिवार द्वारा  दैहिक और मानसिक प्रताड़ना का शिकार होना पड़ रहा है |

                                                                                                                                   द्वारा - शशि शर्मा 

सन्दर्भ सूची :

1. रेखा कस्तवार, स्त्री चिंतन की चुनौतियाँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,पृ.-24

2. रघुवीर सहाय, प्रतिनिधि कविताएँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,पृ.-29

3. संपादक –एकांत  श्रीवास्तव और कुसुम खेमानी,  वागर्थ, अगस्त 2014, कोलकाता, पृ.-108

4. संपादक-विजय बहादुर सिंह, वागर्थ, जुलाई 2009, कोलकाता, पृ.-88

5. .अरविन्दाक्षन,समकालीन हिन्दी कविता,राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लिमिटेड,नयी दिल्ली, पृ.-116

6. संपादक- सुधीर सुमन और प्रणय कृष्ण, समकालीन जनमत, जनवरी-मार्च 2012, पटना,पृ.-64

7. पवन करण, स्त्री मेरे भीतर, राजकमल पेपरबैक्स, नयी दिल्ली, पहला संस्करण-2006,पृ.-46

8. सुधीश पचौरी, स्त्री देह के विमर्श, आत्माराम एंड संस,दिल्ली ,संस्करण-2000,पृ.-80

9. मनीषा झा,शब्दों की दुनिया, आनंद प्रकाशन, कोलकाता, पहला संस्करण-2013,पृ.-80

10.उदय प्रकाश, पचास कविताएँ : नयी सदी के लिए चयन, वाणी प्रकाशन , नयी दिल्ली ,पृ.- 67

11. संपादक- एकांत श्रीवास्तव  और कुसुम खेमानी ,वागर्थ, फरवरी-2015, कोलकाता,पृ.-101

     12. भगवत रावत, प्रतिनिधि कविताएँ , राजकमल प्रकाशन प्रा.लि. ,नयी दिल्ली -2014, पृ.-42

     13.पवन करण,स्त्री मेरे भीतर,राजकमल पेपरबैक्स, नयी दिल्ली, पहला संस्करण-2006,पृ.-20

     14.अरूण कमल, पचास कविताएँ : नयी सदी के लिए चयन ,वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली पहला संस्करण -2011, पृ.- 64

 

 

 

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